समाजिक बराबरी

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समाजिक बराबरी

  • आम तौर पर ऐसी धारणा है कि किसी तरह के भेद-भाव, जात-पात व जन्म आधारित ऊंच-नीच से मुस्लिम समाज पूरी तरह पाक है, जब कभी किसी के द्वारा मुस्लिम समाज में मौजूद इस बुराई पर चर्चा की कोशिश की जाती है तो तथाकथित मुस्लिम (राजनैतिक, धार्मिक) लीडर्स द्वारा अल्लामा इकबाल का प्रसिद्ध शेर-

    "एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूदो अयाज़, न कोई बन्दा रहा, न कोई बन्दा नवाज़।"

  • को सुना दिया जाता है। हालांकि इकबाल का ये शेर जमात (सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली नमाज़) की खूबसूरती बयान कर रहा है न कि मुस्लिम समाज की स्थिति। उसी इकबाल ने मुस्लिम समाज का चित्र इससे बिल्कुल अलग खींचा है। इकबाल मुस्लिम समाज की स्थिति जब बयान करते हैं तो लिखते हैं कि-

    "फ़िर्क़ा-बंदी है कहीं, और कहीं ज़ातें हैं क्या ज़माने में पनपने की यही बातें है।" "यूं तो सैयद भी हो,मिर्ज़ा भी हो, अफगान भी हो, तुम सभी कुछ हो बताओ तो, मुसलमान भी हो।"

  • हकीकत ये है कि मुस्लिम समाज पूरी तरह इब्लीसवादी विचारधारा(जन्म/ज़ाति आधारित ऊंच-नीच)से ग्रसित है, जिसे मुस्लिम विद्वानों द्वारा सदैव नकारा भी जाता है और साथ ही कुफू पर फतवे भी दिए जाते हैं, इतना ही नही ओलमाओं ने अशराफ, अजलाफ़, अरज़ाल (शरीफ, कमीन, निकृष्ट) जैसी श्रेणियों में मुस्लिम समाज को बाँटा भी है। इतना खुला दोगलापन शायद ही ज्ञात विश्व के इतिहास में किसी और धर्म के विद्वानों/ओलमाओं द्वारा किया गया हो। आपको "खेत खाये गदहा, मार खाये जोलहा।" "कोदो-महुआ अन्न नहीं, जोलहा-धुनिया जन नहीं।" जैसी जाति अनगिनत अपमानित करने वाली ज़ाति आधारित कहावतें मुस्लिम समाज में मिल जाएंगी।
  • पसमांदा महाज़ का उद्देश्य जज़्बाती मुद्दों से इतर, तकरीरों, किताबों की जगह ज़मीनी स्तर पर सामाजिक बराबरी कायम करना है।