राजनीतिक हिस्सेदारी
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भारतीय राजनीति में जहां एक तरफ बहुसंख्यक समाज के सम्बन्ध में हर राजनैतिक दल सदैव ये दिखाने का प्रयास करता रहता है कि उसने हर ज़ाति के लोगो को (चुनाव में टिकट, मंत्रिमंडल, आयोगों व संगठन आदि में) उचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया है, वही इसके उलट हर राजनैतिक दल मुस्लिम समाज में ये संदेश देने की कोशिश करता है कि वह मुसलमानों को भी उचित प्रतिनिधित्व हर जगह प्रदान कर रहा है। गैर मुस्लिम समाज मे ज़ाति के आधार पर व मुस्लिम समाज मे धार्मिक पहिचान के आधार पर प्रतिनिधित्व देने की राजनैतिक दलों की नीति-रणनीति के कारण पसमांदा समाज के लिए भारतीय राजनीति होलोकास्ट बन गयी है। फलस्वरूप संसद व विधानसभाओं सहित हर राजनैतिक संगठन व संस्था में पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व नगण्य ही रहा। उदाहरणार्थ-
यदि आप पहली से चौदहवीं लोकसभा तक की लिस्ट उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए
सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा तबके से
थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी 2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी नुमाइंदगी 4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है। वहीँ दूसरी ओर पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है. भारत में मुसलमानों की आबादी के अनुसार कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे. इसलिए मात्र चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, किन्तु जैसा कि पूर्व सांसद जनाब अशफ़ाक अन्सारी साहब ने दिखाया है कि अगड़े मुसलमानों को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है. ये तो पिछड़े मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है।
इतिहास के अध्ययन से साफ पता चलता है कि मुस्लिम नाम पर मात्र कुछ जातियों (शेख, सैयद,
मिर्ज़ा, मुगल आदि) को ही लाभ होता है बाकी अन्य जातियों के हिस्से में, जिन्हें पिछड़ा अथवा पसमांदा कहा
जाता है, सिर्फ नारा लगाने, झंडा ढोने, दरी बिछाने जैसी जिम्मेदारी ही आती है। इसलिए पसमांदा महाज़ मुस्लिम
के नाम पर नही बल्कि जातियों की आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी की मांग करता है, तथा इसी
उद्देश्य की पूर्ति हेतु संघर्षरत है।