News Detail

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के बारे में जाने-

image

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज,मुसलमानो की आबादी के 85 प्रतिशत पसमांदा मुस्लिम समाज का सामाजिक संगठन है। जिसका मुख्य उद्देश्य उपेक्षित एवम् शोषित पसमांदा मुस्लिम समाज को जागरूक करना तथा मुख्य धारा में लाना है। पसमांदा आन्दोलन की शुरुआत बाबा कबीर से हुई। ये सर्व विदित तथ्य है कि बाबा कबीर एक पसमांदा बुनकर समाज से थे। इस बात को उन्होंने अपने कलाम में कई जगह कहा। उन्होंने अपने धर्म से ज्यादा अपनी जाति का ज्यादा जिक्र किया ताकि लोग जान सके कि ज्ञानी होने के लिए जाति विशेष में पैदा होना शर्त नहीं है। इसलिए अशराफ उन्हें सैय्यद, शेख नहीं बना सका और उनके विचारों और उनकी छवि को धूमिल करने के लिए इस्लाम से ही निकालने की पूरी कोशिश की गई।आज भी अशराफ और कुछ पसमांदा उन्हें मुसलमान नहीं मानते जबकि मुस्लिम समाज में फैले जातिवाद के विरोध में प्रथम आवाज थे। इसलिए पसमांदा आंदोलन उन्हें अपना आइकन मानता है। बाबा कबीर मानते थे कि इस देश की असल समस्या धर्म नहीं जाति है। ब्राम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान नहीं सैयद सेखव। उसी कड़ी में मौलाना अब्दुस्सलाम मुबारक पूरी का नाम लिए बगैर पसमांदा आंदोलन परिकल्पना नहीं की जा सकती है। मौलाना मुबारकपुर आजमगढ़ के रहने वाले थे। पसमांदा बुनकर समाज से थे। अशराफ द्वारा रोजमर्रा में पसमांदा की बिरादरियों के लोगों के साथ खुले तौर पर जुल्म ज्यादती,भेदभाव को लेकर बहुत आहत थे। यहां तक पसमांदा को मस्जिदों में भी अगली सफ में खड़े नहीं होने दिया जाता था। मौलाना जब पसमांदा के साथ इस प्रकार के भेदभाव और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाए तो मौलाना ने इसके विरुद्ध कलम उठाने का निर्णय लिया। मौलाना चूंकि बुनकर समाज से थे और मुबारकपुर भी बुनकर बहुल क्षेत्र है। इसलिए मौलाना ने अपना दर्द बयान करने के लिए तारीख- ए - मिनवाल व अहलहु किताब लिख डाली जो 1895 में वजूद में आयी। फिर इसका दूसरा एडिशन 1911 में प्रकाशित हुआ। जिसे पढ़कर ही जमीयतुल मोमिनीन/मोमिन कॉन्फ्रेंस के संस्थापक मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी र.अ. 21 वर्ष की अल्प आयु में ही समाज को जगाने निकल पड़े। यूं तो मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद पर आसिम बिहारी से पहले कई विभूतियों ने बात की और लिखा। लेकिन संगठन के रूप में पहली बार 1920 में कोलकाता में आसिम बिहारी के नेतृत्व में जमीयतुल मोमिनीन नामक पसमांदा संगठन का निर्माण हुआ। जो आगे चलकर मोमिन कॉन्फ्रेंस के नाम से जाना जाने लगा। मोमिन कॉन्फ्रेंस का मूल उद्देश्य भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की सभी शोषित एवम् उपेक्षित भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की बिरादरियों को जागरूक करना तथा उनको मुख्य धारा में लाना था लेकिन अशराफों ने मोमिन लफ्ज को अंसारी से जोड़कर इस संगठन को अंसारियों का संगठन घोषित कर तहरीक को कमजोर करने का प्रयास किया । फलस्वरूप भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की दूसरी बिरादरियों ने विभिन्न जातियों पर आधारित संगठनों जैसे कुल हिन्द जमीयतुल कुरैश,आल इंडिया जमीयतुल मंसूर,जमीयतुल हवारीन,जमीयतुल राईन जैसे संगठन वजूद में आए। फिर भी आसिम बिहारी अलग अलग जातियों के संगठनों से सामंजस्य बनाकर दबे कुचले पसमांदा कामगार को जगाने एवं उनके उत्थान के लिए कार्य करते रहे।इसी कड़ी में 1930 में मुस्लिम लेबर फेडरेशन नाम से राजनीतिक दल बनाने का प्रस्ताव रखा। फिर 1931 में बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इडस्ट्रीज क्लासेजबनाई गई जिसके सर्वसम्मति से आसिम बिहारी संरक्षक बनाए गए। मौजूदा समय में भी अंसारी महापंचायत,मोमिन अंसार सभा, अति पिछड़ा मुस्लिम संगठन, अंसारी डेमोक्रेटिक फ्रंट, पसमांदा मुस्लिम मोर्चा, आल इंडिया फलाह ए मनिहार, ऑल इंडिया अब्बासी महा सभा, ऑल इंडिया जमीयतुल सलमानी ट्रस्ट, शेख जमीयतुल अब्बास, ऑल इंडिया यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा,ऑल इंडिया जमीयतुल कुरैश,अखिल भारतीय इदरीसी महसभा आदि संगठन अलग अलग चल रहे हैं। इसी लिए भारतीय मूल के पसमांदा मुस्लिम समाज की ताकत बिरादरीवाद में बंट गई। यही कारण है कि पसमांदा आंदोलन को शुरू हुए सौ साल से अधिक हो गए है इसके बावजूद पसमांदा मुस्लिम समाज की हालत बद से बदतर होती गई इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की सभी बिरादरियां जागरूक और संगठित नहीं है। इसमें दो राय नहीं है कि बिरादरीवाद से पसमांदा आंदोलन को बहुत नुकसान पहुंचा है। परंतु बिरादरीवाद मुस्लिम समाज की वास्तविकता है इस बात को ध्यान में रखते हुए आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज भविष्य में भारतीय मूल की सभी पसमांदा मुस्लिम समाज की बिरादरियों के नाम से चल रहे संगठनों से वाद संवाद करके एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अन्तर्गत एक साथ मिलकर कार्य करेगा। ताकि पसमांदा विमर्श और पसमांदा समाज की राजनैतिक पहचान बन सके जिससे पसमांदा को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। पसमांदा आंदोलन मूल रूप से भारतीय मूल की मुस्लिम समाज की ओबीसी, एससी एवम् एसटी जातियों के समूह को पसमांदा की संज्ञा देता है। भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की पेशेवर बिरादरियों जैसे मोमिन अंसार (जुलाहा), कुरैशी (कसाई), मंसूरी (धुनिया),इदरीसी(दर्जी) अब्बासी (सक्का) सैफी (लोहार), सलमानी (नाई), हवारी, (धोबी ) आदि जिन को भारत में मौजूद सभी फिरकों के अशराफ संस्थापकों सहित उनके लगभग सभी प्रमुख अशराफ उलेमाओं द्वारा अपनी पुस्तकोंध्फतवों में जलील करने व पीछे रखने के उद्देश्य से फिकहो की किताबों, हदीसों एवम् अन्य तथाकथित इस्लामी किताबों का सहारा लेकर कुरआन की मनमानी व्याख्या करके भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की पेशेवर जातियों को इन किताबों द्वारा अजलाफ व अरजाल अर्थात नीच, कमीन व निकृष्ट लिखा। मुसलमानों में मौजूद जाति/जन्म आधारित ऊंच-नीच नामक बुराई को कभी अशराफ लीडरशिप व अशराफ उलेमाओं ने न तो स्वीकार किया और न ही इसके खात्मे के लिए कोई आवाज उठाई बल्कि बढ़ावा ही दिया। एक ओर जहां मुस्लिम मजहबी संस्थाओं और मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमानो में जातिगत विभेद और जातीय आधार पर पिछड़ापन कभी स्वीकार तक नहीं किया। जबकि भारत सरकार द्वारा अलग अलग सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक मुस्लिम समाज को अशराफ,अजलाफ और अर्जाल मे परिभाषित किया गया जिसके आधार पर भारत सरकार सहित तमाम प्रदेशों की सरकारों द्वारा गठित लगभग सभी आयोगों ने (अपने-अपने क्षेत्रध्विषय के अंतर्गत) भारतीय मूल की पसमांदा बिरादरियों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनैतिक पिछड़ेपन के आधार पर,मुख्य धारा से जोड़ने हेतु, उन्हें चिन्हित कर ओबीसी और एससी में शामिल करने की सिफारिश की है। एसटी में पसमांदा पहले से ही सम्मिलित है।काका कालकेकर आयोग और मंडल आयोग की सिफारिश पसमांदा को अन्य पिछड़ा वर्ग और अतिपिछड़ा वर्ग में सम्मिलित किया गया। जिससे कि पसमांदा में कुछ हद तक सुधार भी हुआ है। वहीं सच्चर कमेटी ने दलित मुसलमानो को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने की सिफारिश की है। कुल मिलाकर भारत में जी कुछ भी पसमांदा में सुधार हुआ है,वो भारतीय संविधान एवं भारतीय व्यवस्था की देन है। इसमें मुसलमानो की किसी भी मजहबी संस्था का कोई योगदान नहीं है। बल्कि अशराफ मुस्लिम नेताओं, बुद्धजीवियों एवम् राजनीतिक रखने वाले मौलवियों ने 10 अगस्त 1950 को, तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू से मिलकर, संविधान के अनुच्छेद 341 पर मजहबी पाबंदी लगवाने में अहम भूमिका निभाई। जिससे भारतीय मूल के पसमांदा समाज की दलितों से धर्मांतरित जातियों को अनुसूचित जाति के आरक्षण,के लाभ से वंचित कर दिया गया। आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज लगातार अनुच्छेद 341 पर लगा धार्मिक प्रतिबंध समाप्त करने के लिए विभिन्न सरकारों और राजनीतिक दलों से मांग करता रहा है और संघर्षरत है ताकि ताकि मुस्लिम दलितों को न्याय मिल सके और उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सके। यदि भारतीय मूल के मुस्लिम दलितों को अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ मिलने लगे तो, उनके लिए भी हिन्दू, सिख, बौद्ध दलितों की भांति एससी के लिए आरक्षित सीटों से सांसद, विधायक बनने के अवसर खुल सकेंगे और प्रशासनिक सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा। इसीलिए अशराफ गैंग ने अनुच्छेद 341 के मुद्दे को कभी नहीं उठाया। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज का लक्ष्य एवम् उद्देश्य भारतीय मूल के पसमांदा समाज के मूल मुद्दों और पसमांदा विमर्श को सदैव आगे रखना है तथा भारतीय मूल के पसमांदा समाज में न्याय की भावना का निर्माण करना एवम् संविधान की मूल भावना का आदर करना तथा सभी धर्मों का आदर और सम्मान करना है। भारत के सभी नागरिकों को देश के संविधान के अनुसार समाज में एक दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना और एक दूसरे का सम्मान करना है। अशराफ की नफरत की राजनीति और मुस्लिम साम्प्रदायिकता से पसमांदा समाज को आगाह करना है। साथ ही पसमांदा समाज में सामाजिक समानता, राजनैतिक हिस्सेदारी, आर्थिक स्तंत्रता, शैक्षिक जागरुकता एवम् वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्माण करना है ताकि पसमांदा समाज के सामाजिक सुधार मे गति मिल सके। भारतीय मूल के पसमांदा समाज की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 85 प्रतिशत है शेष 15 प्रतिशत में तथाकथित अशराफ (सय्यद, शिया, शेख, पठान, मिर्जा आदि) है। परंतु सभी राजनीतिक दलों, धार्मिक संगठनो जैसे ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत - ए- उल्माए हिन्द, जमात - ए- इस्लामी, वक्फ बोर्ड, मजहबी इदारे जैसे देवबंद, बरेली, नदवा, फिरंगी महल आदि, अजमेर, देवां, गाजी, कलियर आदि मजारों पर तथाकथित अशराफ मुस्लिम जातियों का कब्जा है। इन सब जगहों पर पसमांदा केवल टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। जबकि इस्लाम किसी को भी जाति, कुलीन, पंथ, स्थान आदि के आधार पर किसी को उच्चता की उपाधि नहीं देता है। इस्लाम तक्वा (अच्छे कार्य, अच्छे व्यवहार, अच्छे कर्मों, ईमानदारी, समर्पण आदि) के आधार पर मानव को उच्च पहचान देता है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि कालांतर में भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, वस्त्र उत्पादन एवं शिल्प कला में निपुण भारतीय मूल के पसमांदा समाज की पेशेवर जातियों के लोगों की संख्या मुस्लिम आबादी का 85 प्रतिशत और भारत की आबादी का 13 प्रतिशत होने के बावजूद भी सत्ता सरकार तथा अन्य संगठनों में इनकी संख्या शून्य है। ऐसा क्यों? ऐसा संयोग नहीं वरन अशराफ मुस्लिम धर्मावलंबियों और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा अल्पसंख्यक और मुसलमान के नाम पर हमारी संख्या दिखा कर केवल अपने सत्ता वर्चस्व का निर्धारण किया। अब पसमांदा मुस्लिम समाज के नवयुवक इनके षडयन्त्रों को समझ कर अपने अधिकारों के लिए जागरूक हो रहे हैं। अब अन्याय और हक मारी की गाथाओं पर विराम लगना अवश्यंभावी हो गया है। साथ ये भी हमें समझना जरूरी है कि पसमांदा समाज अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं है बल्कि अविकसित अवस्था में है। जब तक चेतना का विकास नहीं होता तबतक उनका न तो कोई संगठन बन सकता है और न ही कोई आंदोलन खड़ा हो सकता है। जिस प्रकार भारत में दलितों और पिछड़ों ने अपनी धार्मिक स्थिति से हटकर अपनी सामाजिक पहचान दलितों और पिछड़ों की बनाई। उसी प्रकार पसमांदा समाज भी अपनी धार्मिक पहचान मुसलमान से हटकर अपनी सामाजिक पहचान पसमांदा की बुनियाद पर हक अधिकारों की मांग करना रहा है। आज अगर कोई पार्टी पसमांदा मुसलमानो को टिकट नही देती या संगठनों में हिस्सेदारी नहीं देती है तो इसकी वजह यह है कि भारतीय मूल के पसमांदा समाज का बड़ा तबका अपनी सामाजिक पहचान से हटकर अपनी धार्मिक पहचान मुसलमान के नाम पर वोट देता है। तथाकथित अशराफ के कौम, उम्मत, इत्तेहाद कलमा गो के नारे के आगे पसमांदा बड़ा तबका धराशाई हो जाता है। मुसलमानो के नाम पर विदेशी मूल अशराफ मुस्लिम जैसे सैय्यद, शेख, मिर्जा, पठान आदि को राजनीतक पार्टियों के संगठनों में उनकी आबादी का 8-10 हिस्सेदारी मिल जाती है और चुने भी जाते हैं। सारी पार्टियों में मुसलमानों के नाम पर तथाकथित अशराफ मुसलमान मजबूती से काबिज हैं जो कि जातीय पूर्वाग्रहों के तहत पसमांदा का टिकेट कटवा देते हैं। क्योंकि मुसलमान से संबंधित जितने भी इदारें हैं जैसे मस्जिद, मदरसा, एएमयू,जामिया,उर्दू अखबार, एनजीओ, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड,इमारतें शरिया, देवबंद, तब्लीगी जमात, जमाते इस्लामी इन सभी पर अशराफ मुसलमानो का कब्जा है अर्थात इन्हीं की विचारधारा से नियंत्रित होते हैं। इसलिए अशराफ उम्मीदवार के पक्ष में कौम व मिल्लत, इस्लाम, मुसलमान का हवाला देकर, बीजेपी से डराकर पसमांदा का ध्रुवीकरण करा ले जाते हैं। अशराफ की हिस्सेदारी सुनिश्चित करा ले जाते हैं। खास बात तो ये है कि जिस सीट उम्मीदवार अशराफ होता है वहां कौमो मिल्लत की एकता का माहौल बनाया जाता है और जहां उम्मीदवार पसमांदा होता है वहां सेक्युलर एकता का नारा दिया जाता है। हाल ही के यूपी के 2022 के विधान सभा चुनाव में हर जगह इसी तरह के नारों के जरिए पसमांदा लीडरशिप को उभरने से रोकने का पूरा प्रयास किया गया। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय मूल के पसमांदा मुस्लिम समाज के लोग इतने जागरूक नहीं है कि वे अशराफ की इस चाल को समझ सकें। पसमांदा इतने लाचार और बेबस क्यों हैं? इस सवाल का जवाब बहुत आसान है क्योंकि हमने अपना इतिहास भुला दिया, अपने आइकॉन बाबा कबीर, आसिम बिहारी और अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसे महापुरुषों की कुर्बानियों को भूल गए। हमने अशराफ बुद्धिजीवियों और लेखकों इतिहासकारों के साथ जातिवादी उलेमाओं के साहित्य, तर्कों, विचारधारा का बायकॉट नहीं किया। बाबा साहब अम्बेडकर और महत्मा फुले की तरह हमने शिक्षा को जाति चेतना का हथियार नही बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि पसमांदा समाज आज भी अशराफ वर्ग का मानिसक गुलाम है। भारतीय मूल के पसमांदा मुस्लिम समाज के लोग अपनी छवि को लेकर हमेशा डरे रहते हैं। इनको सबसे बड़ा डर ईमान जाने का होता है। इन अशराफ मौलवियों और मुल्लाओं ने अपने मसलकी इस्लाम और इनके द्वारा लिखी हुई किताबों का सहारा लेकर पसमांदा मुस्लिम समाज में पेवस्त कर रखा है। इसी लिए पसमांदा आंदोलन अशराफ द्वारा बनाई गई व्यवस्था का पूरी तरह बायकॉट करता है तो इसी लिए पसमांदा को नास्तिक, आरएसएस का एजेंट, यहूदी का एजेंट जैसी तरह तरह की उपाधि देकर पसमांदा आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास करते हैं।लोगों को नास्तिक या काफिर होने का डर दिखाते रहते है। क्योंकि अशराफ संसाधनों से लैस है उसके पास अपनी झूठी गढ़ी हुई बातों को भी समाज में प्रचारित करने के लिए तंत्र है। जबकि पसमांदा संसाधन विहीन है। इसीलिए आम पसमांदा को जागरूक होते हुए भी इनकी धारा के विपरीत काम करने में काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है। शासन प्रशासन में पहुंच और राजनीतिक रसूख के चलते ये आम पसमांदा तो छोड़ो, जागरूक पसमांदा को अपनी तरफ मोड़ ले जाते हैं नहीं तो उसका शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न करते हैं। आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज ने प्रण लिया है कि भारतीय मूल की पसमांदा मुस्लिम समाज की सभी बिरादरियों को साथ लेकर चलते हुए, उनको जागरूक करना और उनकी इज्जत आबरू की लड़ाई लड़ेगा और उनको मुख्य धारा में शामिल करके सरकार एवम् सरकारों के साथ मिलकर इस समाज को मूलभूत सुविधाएं दिलाएगा। बहुत से पसमांदा कार्यकर्ता अपना वक्त अशराफ वर्ग और उनके पसमांदा गुलामो के सवालों के जवाब देने में गुजारते रहते हैं। मेरा सभी भारतीय मूल के पसमांदा आंदोलन से जुड़े हुए लोगों से विनम्र निवेदन है कि अपनी सारी ऊर्जा एवम् समय अशराफ के मुस्लिम विमर्श को बेनकाब करने एवं पसमांदा समाज में जागरूकता फैलाना में लगाए। हम भारतीय मूल के लोग है। भारत हमारा देश है और हमारा देश हमें प्राणों से प्यारा है । देश हित सर्वोपरि है। भारत देश और इसके संविधान की रक्षा के लिए हम भारतीय मूल के पसमांदा समाज के लोग हमेशा भारतीय जन मानस के साथ कंधे कंधे मिलाकर खड़े हैं। पसमांदा समाज ने आसिम बिहारी और अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पैदा किए हैं जिन्होंने भारत विभाजन का पुरजोर विरोध किया। बतख मियां अंसारी ने, गांधी जी की जान बचाने के लिए अंग्रेजों के द्वारा तरह तरह की यातनाएं झेलीं। हमनें शेख बिखारी अंसारी, अब्दुल्ला सिकुई जोलाहा के रूप अंग्रेजों से लड़ते हुए अपनी जान की आहुति दी। हमने वीर अब्दुल हमीद इदरीसी के रूप पाकिस्तान से लड़ते अपने प्राणों को देश सेवा में नौछावर कर दिया। मौका आने पर हम पसमांदा समाज के लोग देश के साथ खड़े है और खड़े रहेंगे। देश को महा शक्ति बनाने में पसमांदा समाज से आने वाले एपीजे अब्दुल कलाम ने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है और आने वाले समय में भारतीय मूल के पसमांदा समाज से और भी कलाम पैदा होंगे।