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अनुच्छेद 341 और दलित मुसलमानों का आरक्षण

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लेखक : लेनिन मौदूदी अभी हाल में केंद्र सरकार ने एक पैनल बनाने की घोषणा की है। यह पैनल इस बात की पड़ताल करेगा कि क्या मुस्लिम दलित जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए या नही ? ज्ञात रहे कि मुस्लिम दलित जातियों को 10 अगस्त 1950 को तत्कालीन नेहरू सरकार ने अध्यादेश 1950 के जरिये धार्मिक प्रतिबंध लगाकर हिन्दुओं को छोड़कर अन्य धर्म के दलितों को अनुसूचित जाति से बाहर कर दिया। सिखों को 1956 में और बौद्धों को 1990 में दोबारा इस श्रेणी में शामिल किया गया। दलित मुस्लिम और ईसाई आज भी अनुसूचित जाति के आरक्षण से बाहर हैं। इस दौरान कई सेक्युलर पार्टियां आई और चली गई पर किसी ने मुस्लिम दलितों का नाम लेना भी गवांरा नही किया। यह वही पार्टियां हैं जिनको पसमांदा समाज आज भी वोट करता है, इन सेक्युलर पार्टियों को हमारा वोट चाहिए पर वह हमें कोई अधिकार देने के पक्ष में नही हैं। यह पार्टियां 'संविधान बचाव' का नारा देती हैं अनुच्छेद 341 पर लगे धार्मिक प्रतिबन्ध पर अपनी छुपी बांध लेती हैं, ऐसे बचेगा संविधान ? संविधान बनने के बाद 1950 में उसके मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14,15,16 और 25 की हत्या राष्ट्रपति अध्यादेश द्वारा कर दी गई और किसी भी सेक्युलर पार्टी को इससे कोई फर्क नही पड़ा। हम यह जानते हैं कि पृथक निर्वाचन मंडल को रद करने की मांग पर गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गए थे। गांधी और बाबा साहब के बीच एक समझौता हुआ था जिसे 'पूना पैक्ट' के नाम से जाना जाता है। इसी समझौते के तहत आरक्षण का प्रवधान आया था। इसलिए कुछ दलित साथियों का कहना है कि मुसलमान तो पृथक निर्वाचन मंडल का लाभ उठा रहे थे और बाद में वह पाकिस्तान के रूप में अपना हिस्सा ले कर चले गए अतः उन्हें हिन्दू समाज के भीतर (पूना पैक्ट) हुए इस अनुचित जाति के समझौते में भागीदार बनाना कहीं से भी उचित नही है। ऐसा कहने वाले दलित साथी कांग्रेस को तो ब्राह्मणवादी संगठन के रूप में चित्रित करते हैं पर मुस्लिम लीग को अशराफ़ संगठन नही बोलना चाहते। वह भी पूरे मुसलमानों को एक ही वर्ग मानते हैं और आज भी वह पसमांदा आवाज़ को सुनना नही चाहते। इतिहास गवाह है कि पसमांदा आंदोलन ने न पाकिस्तान का समर्थन किया था न मुस्लिम लीग का समर्थन किया था। यह वह समाज है जो विभाजन के वक़्त भी भारत में रहा। पसमांदा मुसलमान उस वक़्त कांग्रेस , मुस्लिम लीग और बाबा साहब की तरह कोई पार्टी नही थी। यह वजह रही कि पसमांदा मुसलमानों के विरोध को उनकी मांग को उनके दर्द को किसी ने नही सुना। आज़ादी के 75 साल बाद आज हमारी बात अशराफ़ नेतृत्व में खो जाती है तो उस वक़्त का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। रिजर्वेशन की जरूरत क्यों है? डा. बी.आर. अंबेडकर, पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन ऑफ़ इंडिया में अर्ज़ाल मुसलमानों की बात करते हैं और बताते हैं कि यहां भी छुआछूत मौजूद है। नीची जातियों के अधिकांश मुसलमान वे हैं, जो हिन्दुओं के निचले सामाजिक तबके के विभिन्न पारंपरिक पेशागत समूहों से जुड़े हुए थे और हैं। धर्मपरिवर्तन से उनका सामाजिक और आर्थिक दर्जा नहीं बदला। वे गरीब और उपेक्षित बने रहे। बाबा साहब आंबेडकर इस बात को समझते थे कि भारत में शुद्र एक वर्ग है(जिसमें हिन्दू दलित और मुसलमान दलित दोनों आते हैं) इस वर्ग का निर्माण हजारों साल कि अमानवीय वर्ण-व्यवथा ने किया है। यही वजह है कि पसमांदा बुद्धिजीवी अली अनवर कहते हैं कि 'दलित-दलित एक समान हिन्दू हो या मुसलमान'। वर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था ने दलितों के अन्दर एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया है जिससे वो खुद को हीन समझने लगे हैं। ये काम वर्ण व्यवस्था ने समाज को एक श्रेणीक्रम में बाँट के किया जिसके उच्च पद पे ब्राह्मण और अशारफ थे और नीचे के पद पे दलित/शुद्र। साथ ही वर्ण-व्यवस्था ने ये भी तय किया कि उच्च पद पे अधिकार हो और निम्न पद पे सिर्फ कर्तव्य। दलितों को सभी प्रकार की राजनैतिक और सामाजिक भागेदारी से बाहर रखा गया। किसी भी प्रकार की आर्थिक क्रियाकलाप से भी बाहर रखा गया ताकि ये सम्पत्ति का अर्जन न कर सकें। उनका कार्य सिर्फ तीनों वर्णों की सेवा करना था। इस प्रकार दलितों(हिन्दू और मुस्लिम) के पास विकल्प की कोई स्वतंत्रता नहीं थी। उनके कार्य पहले से तय होते थे।जब किसी से उसकी चयन की आज़ादी छीन ली जाए और उसके कार्य तय कर दिए जाएँ तो वह बिलकुल एक वस्तु की तरह हो जाता है जैसे चाकू का काम काटना है इसमें उसकी कोई इक्षा नहीं है। उसको बनाया ही गया है काटने के काम के लिए। ठीक ऐसे ही दलितों का भी वस्तुकरण कर दिया गया। उनके अन्दर से मानवीय गरिमा को खत्म कर के उनके अंदर दासता के मनोविज्ञान को पैदा किया गया। बहुत ही चालाकी से ब्राह्मणवाद ने धर्म के नाम पे इस काम को अंजाम दिया। बाबा साहब आंबेडकर ने ये महसूस किया कि ब्राह्मणवाद के षड़यंत्र से अगर दलितों को निकलना है तो पहले दलितों के अन्दर से उनके दास के मनोविज्ञान को बदलना होगा। इस के लिए ये आवश्यक है कि इस बहिष्कृत समाज को समाज के कुछ चुनिंदा कुर्सियों पर बैठाना होगा जो शिक्षा, रोज़गार, राजनीति से जुड़े हों। इसलिए आवश्यक है कि उन कुर्सियों पर निशान लगाकर उन्हें आरक्षित कर दिया जाए। आंबेडकर ने तीन प्रकार के आरक्षण की बात की। 1. शिक्षा में आरक्षण 2. नौकरी में आरक्षण 3. राजनीति (संसद) में आरक्षण शूद्रों का काम शिक्षा हासिल करना नहीं था और अगर शुद्र शिक्षा हासिल करने की कोशिश भी करते थे तो उनको कड़ी सजाएं दी जाती थीं। आंबेडकर मानते थे कि शिक्षा का मूल कार्य तर्क का विकास करना है, सही-गलत के बीच भेद को समझाना है क्योंकि आज तक दलितों को शिक्षा से दूर रखा गया है। इसीलिए वह अपनी अमानवीय स्थिति के खिलाफ प्रतिरोध नहीं कर सके हैं। आंबेडकर मानते थे कि किसी भी समाज का सशक्तिकरण करना हो तो उसमें प्रतिरोध भर दो, लेकिन ये प्रतिरोध तब उत्पन होगा जब उनमें जागरूकता आएगी, जागरूकता तब आएगी जब वह शिक्षित होंगे। डॉक्टर आंबेडकर शिक्षा को नौकरी पाने का साधन मात्र नहीं मानते थे। उनके अनुसार शिक्षा प्राप्त करना इसलिए आवश्यक है कि दलित वर्ग अन्याय सहना बंद कर दे। बाबा साहब आंबेडकर कहते हैं कि “शिक्षा वो शेरनी का दूध है, जो पियेगा, वो दहाड़ेगा।” आंबेडकर नौकरियों में भी आरक्षण की हिमायत करते हैं क्योंकि भारत में नौकरियाँ सिर्फ जीवनयापन करने का साधन नहीं है बल्कि पद का सूचक भी हैं। भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था ने जन्म के साथ कार्यों का… सही मायने में कहें तो श्रमिकों का विभाजन भी कर दिया था। दलितों के हिस्से में अमानवीय कार्य थे जबकि शिक्षा, राज और अर्थव्यवस्था पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मौजूद थे। बाबा साहब आंबेडकर ने समाज में पहले से आरक्षित कार्यों के विरुद्ध आरक्षण की व्यवस्था की। आंबेडकर ये जानते थे कि दलित अधिकार विहीन समाज से आते हैं और हर नौकरियों के साथ कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं। इस प्रकार रोज़गार में आरक्षण से दलित कर्तव्यों की जगह अधिकारों का भी प्रयोग कर सकेंगे जो स्वर्ण समाज के व्यक्तियों पर भी लागू होगा। एक दलित अगर IAS बनता है तो स्वर्ण व्यक्ति भी उसे IAS साहब कह के ही बुलाएँगे और उस IAS के अधिनस्त बहुत से स्वर्ण व्यक्ति कार्य करेंगे. इस प्रकार दलितों का मनोविज्ञान बदलेगा और उनमें आत्मसम्मान पैदा होगा. पहली बार वो सेवक से मालिक/अधिकारी की भूमिका का निर्वहन करेंगे। अंत में आंबेडकर राजनीति में आरक्षण की बात करते हैं। दलितों को हमेशा ही मत निर्माण की प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। उनके कार्यों का निर्धारण भी वो खुद नहीं करते थे. अत: डॉक्टर आंबेडकर राजनीतिक आरक्षण के ज़रिए दलितों के अंदर मत निर्माण, नीति निर्माण, राजनीतिक चेतना और वर्गीय चेतना का विकास करना चाहते थे। राजनीतिक आरक्षण से वर्ण व्यवस्था की उस संरचना को तोड़ना चाहते थे जिसमें एक वर्ग के पास निर्णय लेने, मत निर्माण करने की शक्ति थी और दूसरा वर्ग सिर्फ दास था। जब दलित समाज और सरकार के निर्णय प्रक्रिया में भागेदारी करेंगे तो उनके अन्दर से गुलाम वाली मानसिकता समाप्त होगी. इस प्रकार हम देखते हैं कि अम्बेकर शिक्षा में आरक्षण से जागरूकता लाना चाह रहे हैं, रोज़गार में आरक्षण से दलितों के अन्दर आत्मसम्मान लाना चाहते हैं और राजनीतिक आरक्षण से वर्ग चेतना। इस प्रकार आंबेडकर की नज़र में आरक्षण दलितों के सर्वांगीण विकास की एक प्रक्रिया है जो उन के अन्दर प्रतिरोध को पैदा करेगी। डॉक्टर आंबेडकर कहते हैं कि “एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है” रिजर्वेशन का हकदार कौन है? जस्टिस रंगनाथ मिश्रा ने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा है कि पंथ के आधार पर मुसलमानों और इसाइयों को आरक्षण से वंचित रखना संविधान में नागरिकों को दिए गए समानता के अधिकार के खिलाफ है। 10 अगस्त 1950 तत्कालीन सरकार द्वारा अनुच्छेद 341 के पैरा 3 पर धार्मिक प्रतिबन्ध लगा कर दलित एवम अनुसूचित जाति के मुसलमानो व क्रिस्चियन के साथ भेदभाव किया गया है स्थिति यह है कि यदि अनुसूचित जाति का मुसलमान व ईसाई आरक्षण चाहे तो उसे धर्म परिवर्तन करना होगा l यह भारत के संविधान कि मूल आत्मा के विरुद्ध है।संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई. ये निर्धारित नहीं किया गया था कि कौन-कौन व्यक्ति इन श्रेणियों में आते है. संविधान के भाग-16 के अनुच्छेद- 341 और 342 के मुताबिक राष्ट्रपति को इन जातियों को उल्लेखित करने की शक्ति दी गई. संविधान में लिखा गया है कि – “राष्ट्रपति, राज्यपाल से परामर्श के बाद, लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों, जनजातियों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें अनुसूचित जातियां समझा जाएगा.” माने राज्यपाल से विचार-विमर्श करके राष्ट्रपति स्वविवेक से अनुसूचित जातियों की परिभाषा तय कर सकेंगे। यही बात अनुसूचित जनजाति के लिए भी कही गई थी। यानी ये बात संविधान सभा में भी स्पष्ट नहीं हो सकी कि एससी-एसटी की परिभाषा क्या रखी जाए। क्या है अनुच्छेद 341? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 (Article 341) की। अनुच्छेद-341 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह विभिन्न जातियों और कबीलों के नाम एक विशेष सूची में शामिल कर दें। 1950 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश के जरिए एक अनुसूची जारी की, जिसमें पिछड़ी जातियों या जनजातियों के भागों को शामिल किया गया था। बाद में इन सूचीबद्ध जातियों और जनजातियों को ही अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति कहा गया। इस अनुच्छेद में दो मुख्य प्रावधान हैं, पहले क्लॉज में बताया गया है कि राष्ट्रपति राज्य या केंद्र शासित प्रदेश की किसी जाति को सार्वजनिक अधिसूचना के जरिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में शामिल कर सकते हैं। जबकि, इसके दूसरे क्लॉज में बताया गया है कि भारतीय संसद राष्ट्रपति की सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा अनुसूचित जाति या जनजाति में शामिल किसी भी जाति या समुदाय को इस सूची से बाहर निकाल सकते हैं। मुस्लिम जाति व्यवस्था मुसलमान कोई एकांगी समाज नही है इसमें भी अलग-अलग जाति और वर्ग पाए जाते हैं। जब भारत सरकार मुस्लिम समाज को 'पिछड़े वर्ग' (बिहार जैसे कुछ राज्यों में पिछड़ा और अति पिछड़ा दोनो में) और अनुसूचित जनजाति में शामिल करती है तो इसका अर्थ यही निकलता है कि भारत सरकार मुस्लिम समाज में मौजूद जाति व्यवस्था के अस्तित्व को मानती है। धर्म बदलने से जाति नही बदल जाती है न ही जाति से जुड़ा उत्पीड़न।अभी कुछ साल पहले तक माहौल यह था कि जब मुसलमानों में जाति का सवाल उठता है तो कई मुस्लिम विद्वान छटपटाहट के साथ कहते हैं – कुरान में जात-पात कहाँ? पर यहाँ सवाल कुरान का नहीं उसकी व्याख्या का है। किसी भी किताब की व्याख्या कोई लेखक करता है और लेखक हमारे इसी समाज के होते हैं। लेखक की समाजी हैसियत का असर उसकी व्याख्या पर भी ज़रूर पड़ता है। जब मौलाना अशराफ अली थानवी बहिश्ती ज़ेवर में ‘कुफु’ के सिद्धान्त/ उसूल को बयान करते हुए बताते हैं कि ऊँची बिरादरियों को नीची बिरादरियों के साथ विवाह के संबंध कायम नहीं करने चाहिए तो मौलाना और उनके मुरीदों को यह इस्लामी उसूल ही लग रहा था। खैर पसमांदा आंदोलन की लगातार कोशिश ने इस बात पर तो लगभग राज़ी कर लिया है कि जातियां मुस्लिम समाज में मौजूद हैं। पर अब भी यही बात कही जाती है कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था हिंदुओं के मुकाबले कमज़ोर है। यह बात कहने वाले जाति के मूल उद्देश्य को नही समझ पाते जो है ‘सामाजिक बहिष्करण’ अर्थात जाति व्यवस्था इस बात को तय करती है कि कौन सी जाती का समाज में क्या स्थान होगा ? कौन कुरान का व्याख्याकार बनेगा ? कौन कौम के नाम पर शासन करेगा ? समाज के महत्वपूर्ण पदों पर कौन होगा ? आप गौर करके देख लें समाज के महत्वपूर्ण पदों पर कितने पसमांदा समाज के व्यक्ति आप को नज़र आएंगे। समाजशात्रीय खालिद अनीस अंसारी भाई कहते है कि 'भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं और तीन प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में विभाजित हैं. उच्चवर्गीय मुसलमान ‘अशराफ़’ कहलाते हैं जो या तो अपना उद्भव पश्चिम एशिया या सेंट्रल एशिया बताते हैं' (सय्यद, शेख, मुग़ल, पठान इत्यादि) या फिर सवर्ण जातियों से धर्म परिवर्तित हैं (रांगड़ या मुस्लिम राजपूत, तगा या त्यागी मुसलमान, गाढ़े या गौड़ मुसलमान, इत्यादि) सय्यद बिरादरी का दर्जा सबसे ऊपर है और मुसलमानों में वह ब्राह्मणों के समानांतर हैं।मुसलमानों के अन्दर गैर-बराबरी के दर्शन को सय्यदवाद कहा जाता है और इस दर्शन और अशराफिया वर्चस्व के विरुद्ध ‘अजलाफ़’ (शूद्र या पिछड़े मुसलमान) और ‘अर्जाल’ (दलित मुसलमान) तबकों के सामाजिक आन्दोलन लगभग बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से संघर्षरत हैं।' पर समस्या यह है कि एक हिन्दू धोबी को तो आरक्षण का लाभ मिलता है पर एक मुस्लिम धोबी को नहीं जबकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति एक जैसी ही होती है। डॉक्टर अयूब राईन साहब अपनी किताब “भारत के दलित मुसलमान” के पेज 9 पे लिखते हैं कि “जिस प्रकार बहुसंख्यक वर्ग हिन्दू धोबी को अछूत समझता है और उसे अपने घर के अन्दर नहीं आने देता बल्कि दरवाज़े पर ही कपड़े धोने को देता है और दरवाज़े से ही धुले हुए कपड़ा लेता है। ठीक उसी प्रकार का व्यवहार मुस्लिम धोबी के साथ मुस्लिम अशराफ़ वर्ग का होता है। पसमांदा मुस्लिम महाज़ के महासचिव श्री वक़ार अहमद बताते हैं कि धोबी होने के नाते उनके साथ भेदभाव और छुआछूत होता आया है। उनके अपने शहर में इस भेदभाव से तंग आ कर धोबी जाति ने अपने मस्जिद अलग बना ली थी जिसे 'धोबियाने की मस्जिद' बोला जाता है। अशराफ़ वर्ग यही अपने आप को फंसा हुआ पाता है क्योंकि अनुच्छेद 341 के साथ सामाजिक बहिष्कार की शर्त भी है। अशराफ़ वर्ग 341 को धर्मपरिवर्तन से जोड़ कर इस पूरे मुद्दे को साम्प्रदायिक तो बनाना चाहता है पर इसे छुआछूत से जोड़ कर अपनी शोषक वाली छवि नही बनने देना चाहता है। मुसलमानों में छुआ-छूत जो व्यक्ति मुस्लिम समाज छुआछूत के अस्तिव को नकारने वाले इस बात को समझें कि किसी घटना/समस्या की रिपोर्टिंग न करने का अर्थ यह नही है कि उस समस्या का अस्तिव ही नही है। आरक्षण धार्मिक सिद्धान्तों पर नही बल्कि सामाजिक व्यवहारों के आधार पर दिया जाता है। वर्ना इस्लाम की ही तरह बराबरी का दावा करने वाले सिख और बौद्ध धर्म को मानने वालों को अनुसूचित जाति का दर्जा नही दिया जाता। मुस्लिम समाज में मौजूद छुआछूत के ऊपर प्रशांत के त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण किया था। जिसे 'बी.बी.सी हिन्दी' ने 10 मई 2016 को प्रकाशित किया था। उस रिपोर्ट को हूबहू यहां प्रस्तुत किया जा रहा है .दलित मुसलमानों' के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता. यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है. • 'दलित मुसलमानों' के एक समूह ने कहा कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है. इसी संख्या के एक और समूह ने कहा कि वह लोग उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही खाते हैं. बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है. • करीब 8 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' ने कहा कि उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है. • कम से कम एक तिहाई ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते. वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में. • ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर 'दलित मुसलमानों' को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है. • 'दलित मुसलमानों' के एक उल्लेखनीय तबके ने कहा कि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके समुदाय को छोटे काम करने वाला समझा जाता है. • 'दलित मुसलमानों' से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है. • इसी तरह करीब 20 फ़ीसदी प्रतिभागियों को लगा कि उच्च जाति के मुसलमान उनसे दूरी बनाकर रखते हैं और 25 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' के साथ को उच्च जाति के हिंदुओं ने ऐसा बर्ताव किया. • जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई 'दलित मुसलमान' परिवार नहीं रहता था. • 20 फ़ीसदी ने दलित मुसलमानों के साथ किसी तरह की सामाजिक संबंध होने से इनकार किया. और जो लोग 'दलित मुसलमानों' के घर जाते भी हैं उनमें से 20 फ़ीसदी उनके घरों में बैठते नहीं और 27 फ़ीसदी उनकी दी खाने की कोई चीज़ ग्रहण नहीं करते. • गैर-दलित मुसलमानों से पूछा गया था कि वह जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है. इस पर 20 फ़ीसदी ने कहा कि कोई 'दलित मुसलमान' उनके घर नहीं आता. और जिनके घऱ 'दलित मुसलमान' आते भी हैं उनमें से कम से कम एक तिहाई ने कहा कि 'दलित मुसलमानों' को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं. Multiple Identity के साथ यही दिक्कत होती है. Kimberly Karen Shaw ने एक सिद्धांत दिया Intersectionality का जिसमें वो कहते हैं कि एक मनुष्य की अलग-अलग पहचान के आधार पर उनके साथ भेदभाव किया जाता है पर क्या होजो एक ही इंसान की कई पहचान मिलके उसके साथ ज़ुल्म करें जैसे एक पसमांदा मुसलमान को दलित जाति का होने के कारण भेदभाव का शिकार होना पड़ता है पर उसे दलित हिन्दुओं की तरह आरक्षण नहीं दिया जाता क्योंकि वो मुसलमान है. इस प्रकार हम देखते हैं कि पसमांदा मुसलमान, दलित हिन्दुओं से ज़्यादा पिछड़े हैं. Multiple identity के शिकार लोगों के साथ यही समस्या आती है।इस समस्या का दूसरा पहलू ये है कि जब आप अपनी अलग पहचान का ज़िक्र करते हैं तो इसका तीव्र विरोध वे लोग करने लगते हैं जिनका सामाजिक-राजनीतिक हित आप की अलग पहचान के अस्तित्व को मानने से प्रभावित होता है. उदाहरण के रूप में, जैसे ही पसमांदा मुसलमान अपनी पसमांदा पहचान को ले के सजग होते हैं वैसे ही “मुस्लिम राजनीति” करने वाले लोग इसके विरोध में सतर्क हो जाते हैं. इसका कारण यह है कि इन लोगों की दुकान मुस्लिम एकरूपता के मिथ को बनाए रखने में है. जब तक आप मुस्लिम होने के नाते भेदभाव का आरोप लगायेंगे तब तक आप का विरोध नहीं होगा पर जैसे ही आप पसमांदा होने के कारण भी मुस्लिम समाज के अन्दर भेदभाव होने का आरोप लगाएंगे तो पूरे अशराफ़ बुद्धिजीवियों के पेट में मरोड़ होने लगेगी। हमें इस बात को समझना और समझाना ज़रूरी है कि आरक्षण राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हजारों हजार वषों से जीवन के अनेकों आयामों से बहिष्कृत, शोषित, अनादरित एवं वंचित जातियों को सत्ता, शिक्षा, उत्पादन, न्याय, संचार व्यवसाय, स्वयंसेवी संगठनों अदि में उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्य (भागेदारी) सुनिश्चित करना है। सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण नीति ने देश की एकता को मजबूत किया है। आज देश के सभी हिस्सों और धर्मो के दलित-आदिवासी-ओबीसी में भावनात्मक एकता तैयार हो रही है जो देश को विघटनकारी तत्वों से सुरक्षित रखने में बड़ी भूमिका निभायेगी। एक सवाल इन अशराफ़ नेताओं/क्रांतिकारियों से ये भी पूछा जाने वाला है कि जो संस्थाएं अशराफों ने बनाईं है जैसे आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-उल-उलेमाए हिन्द, बिहार उर्दू अकेडमी आदि उसमे पसमांदा मुसलमानों को कितना आरक्षण दिया गया है। और रही बात धार्मिक रूप से आरक्षण की तो पसमांदा आन्दोलन का मानना ये है कि हमारे संविधान, राजनीति और सामाजिक ताने-बाने का आधार धर्मनिरपेक्षता है। आधुनिक भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि आजादी के पहले और बाद जब भी हमारे देश में धर्म के आधार पर कोई बड़े निर्णय लिए गए हैं, धार्मिक कट्टरपंथ मजबूत हुआ है, सांप्रदायिक हिंसा में अनगिनत निर्दोषों की मौत हुई है, देश की एकता पर आघात हुआ है और विश्व बिरादरी में एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हमारे देश की छवि को बट्टा लगा है। इसका असर हमारे देश की आर्थिक विकास पर भी हुआ है। हम सम्पूर्ण मुस्लिम आरक्षण को ऐसा ही एक सांप्रदायिक कदम मानते हैं जो लागू होने पर धार्मिक कट्टरपंथ को मजबूत साबित करने वाला और साम्प्रदायिक वातावरण को विषाक्त बनाने वाला साबित होगा। साथ ही इस बात को भी समझें कि पसमांदा आंदोलन 'दलित मुसलमानों' के आरक्षण की मांग तक सीमित नही है। यह आंदोलन दलित आंदोलन, महिला आंदोलन, ब्लैक आंदोलन की तरह समाज के हर पक्ष धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,संस्कृतिक, साहित्यिक आदि की पसमांदा व्याख्या करना चाहता है।