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मुस्लिम समाज की जाति व्यवस्था कितनी कठोर ?

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अब्दुल्लाह मंसूर ‘पसमांदा’ एक फारसी शब्द, जिसका अर्थ है ‘जो पीछे रह गए हैं’. यह शूद्र (पिछड़े) और अति-शूद्र (दलित) जातियों से संबंधित मुसलमानों को संदर्भित करता है. पसमांदा शब्द वर्तमान में पसमांदा विचारधारा और आंदोलन से जोड़कर देखा जाता है. पसमांदा आंदोलन पोस्ट मंडल आंदोलन के रूप में (1990 के दशक में) मुस्लिम समुदाय के भीतर पसमांदा जातियों द्वारा सामना किए जाने वाले भेदभाव और हाशिएकरण की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा. इस आंदोलन का उद्देश्य भारतीय मूल के पसमांदा मुस्लिम समाज को उनके प्रबल राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिद्वंदी अशराफ समाज के वर्चस्व एवं षड्यंत्र के विरुद्ध जागरूक एवं सचेत करना रहा है तथा इस आंदोलन की कोशिश है कि पसमांदा समाज को लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदार बनाया जाए और संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रति जागरूक करके उनकी शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक सोच एवं सांस्कृतिक उत्थान का सर्वांगीण विकास किया जए. भारत में अशराफ मुसलमानों का आगमन भारत में मुसलमान तीन चरणों में तीन अलग-अलग हैसियत से भारत में आए. सबसे पहले दक्षिण भारत में अरब व्यापारी के तौर पर आए. दूसरा, अरबी आक्रमणकारी के रूप में, जिन्होंने सिंध को जीतकर उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया. तीसरे चरण में तुर्कों का आक्रमण उत्तर भारत पर हुआ. तत्कालीन भारत का मुस्लिम समाज अपनी जाति के प्रति अत्यंत सचेत था तथा उसमें अपने वंशजों के प्रति एक प्रकार का गर्व-बोध था. बाहर से आए अशराफ मुसलमान हिंदुस्तानी मुसलमानों को घृणा की दृष्टि से देखते थे, जबकि निम्न जाति के हिंदुओ द्वारा इस्लाम को अपनाए जाने के बावजूद उनकी सामाजिक स्थिति और छुआछूत में कोई सुधार नहीं हुआ. और इस तरह कुलीनों तथा अन्य पसमांदा वर्गों में एक सांस्कृतिक अंतर मौजूद रहा. संस्कृति पर उच्च वर्ग का एकाधिकार था और अपने सांस्कृतिक वर्चस्व के जरिए वह अपना प्रभुत्व (पसमांदा समाज पर) बनाए रखते थे. पूरे ऐतिहासिक दौर में बोल-चाल, पोशाक, खान-पान, रहन-सहन आचार-व्यवहार में अंतर बना रहा तथा निम्न पसमांदा वर्ग से हमेशा एक दूरी बनाकर रखी गई. दरअसल मुस्लिम संप्रदाय कभी एक इकाई के रूप में नहीं रहा, बल्कि वह सामाजिक और आर्थिक आधार पर विभिन्न वर्गो और जातियों में विभक्त रहा. मध्यकालीन भारत का पसमांदा इतिहास कहां है?, यहाँ इस बात को भी समझने की जरूरत है कि भारत में धर्मांतरण हुआ, क्योंकि इन जातियों में उच्च कही जाने वाली जातियों की तुलना में अपेक्षाकृत रीति-रिवाज के पालन में अधिक खुलापन था. भारतीय मुस्लिम समाज में पेशों की ऊँच-नीच से अशराफ, अजलाफ और अरजाल श्रेणियों का अवधाराणात्मक क्षेत्र तय होता है. इन तीन कैटेगरी को संक्षेप में समझें तो 1- अशराफः ये विदेशी मूल के मुसलमान हैं, जैसे शेख, सैयद, मिर्जा/मुगल, पठान आदि 2- अजलाफः ये भारतीय मूल के गैर-सवर्ण जातियों से धर्मांतरित जातियाँ हैं, जैसे जुलाहा, मंसूरी, राईन, गद्दी आदि 3- अरजालः अरजाल का शाब्दिक अर्थ नीच होता है. इसमें अति दलित वर्ग से धर्मांतरित जातियां आती हैं, जैसे नट, हलालखोर, धोबी आदि. अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें, तो पिछड़े (अजलाफ) और दलित (अरजाल) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 फीसद होते हैं. आजादी से पहले जब भारत में अंग्रेजों की हुकूमत आई और अंग्रेजी शासन ने कुछ राजनीतिक व सामाजिक सुधार किए, तो इससे अशराफ जातियों में एक बेचैनी पैदा हो गई कि अगर भारत में लोकतंत्र आ गया, तो जिसकी संख्या ज्यादा होगी, वही शासन करेंगे. पहले तो अशराफ बुद्धिजीवियों ने लोकतंत्र का विरोध किया, लेकिन जब बात नहीं बनी, तो पसमांदा जातियों को भी कौम में जोड़ने की बात होने लगी. ताकि हिंदू समाज की तुलना में वह अपने समाज की संख्या बढ़ा कर दिखा सकें. यहाँ भी अशराफों ने पसमांदा जातियों को संख्या से अधिक कुछ न समझा. सर सैयद ने 1857 के क्रांतिकारियों को ‘बदजात जुलाहे’ कहकर गाली दी थी और पसमांदा मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से रोका. वहीं अल्लामा इकबाल लगातार लोकतंत्र का विरोध करते रहे, क्योंकि उनके हिसाब से लोकतंत्र में उन लोगों की मान्यता बढ़ जाएगी, जिसपर अशराफ राज करते रहे हैं. इतिहासकार मुबारक अली अपनी किताब ‘इतिहास का मतांतर’ में लिखते हैं कि ‘मुस्लिम अभिजात्य वर्ग’ (अशराफ) ने अंग्रेजों पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वह उनके प्रभाव तथा मान-सम्मान का ध्यान रखें. ‘ यूपी के मुसलमानों के प्रतिनिधित्व’ के नाम पर उन्होंने एक अपील की और सरकार से कहा कि देश के जागीरदार होने के नाते प्रांतों पर उनका अभी भी प्रभाव था. इस लिए संख्यागत बहुमत से वह अधिक महत्वपूर्ण थे. इस वजह से पारिवारिक वंशावली को अहमियत दी जानी चाहिए. अपने इलाहाबाद के सम्बोधन में इकबाल ने इसी भावना को अभिव्यक्ति दी. जब उन्होंने दोहराया कि इस देश में पाश्चत्य लोकतंत्र नहीं चल सकता. उन की शायरी में भी लोकतंत्र विरोधी विचार स्पष्ट हैं. (जैसे जम्हूरियत इक तर्ज-ए-हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं, तौला नहीं करते) यह मुस्लिम अभिजात्य वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाता है, जिसके अंतर्गत आम आदमी के साथ मेल-जोल रखकर यह वर्ग अपनी सामाजिक मान-मर्यादा खोना नहीं चाहता था. यह वर्ग चाहता था कि उसकी श्रेष्ठता सुरक्षित और बरकरार रहे. आजादी के बाद पसमांदा आंदोलन इन्हीं परिस्थितियों में उभरा. जैसे-जैसे जातिय चेतना बढ़ी, वैसे-वैसे कुछ जातियां अपने उत्पीड़न के खिलाफ इकट्ठा होने लगीं. जैसे अब्दुस्समद और अब्दुल लतीफ के नेतृत्व वाली जमीयतुल राईन, भैय्या जी राशिदुद्दीन के नेतृत्व वाली जमीयतुल कुरैश आदि प्रमुख थे. मोमिन कान्फ्रेंस इस वक्त सबसे मुखर हो कर सामने आई. मोमिन कान्फ्रेंस उस वक्त मुस्लिम लीग के खिलाफ खड़ी हुई. मुस्लिम और मोमिन शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं. पर मोमिन कहने से यह पिछड़ों का संगठन नजर आता है और मुस्लिम कहने से अशराफ संगठन. मोमिन कान्फ्रेंस के जनक मौलाना अली हुसैन (15 अप्रैल 1890 - 6 दिसम्बर 1953) मुस्लिम लीग के दो-राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ थे. अब्दुल कय्यूम अंसारी (1 जुलाई 1905 - 18 जनवरी 1973) ने इस आंदोलन को और तेज किया. इन्होंने जिन्ना के ‘दो राष्ट्र’ के खिलाफ खुलकर कांग्रेस को समर्थन भी दिया था और अपने संगठन को कांग्रेस में विलीन कर लिया. जब समय बदलता है, तो सियासत भी बदल जाती है. मुस्लिम लीग के नारे ‘मुस्लिम है तो लीग में आ, पाकिस्तान का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह’ से लड़ने के लिए अब्दुल कय्यूम अंसारी ने कहा ‘जिस जगह मोमिन (बुनकर, अंसारी) रहते हैं वही उनका पाकिस्तान होता है. उनको किसी पाकिस्तान की जरूरत नहीं है.’ पसमांदा मुसलमान आजादी के बाद भी गाँधी जी की गाय और कांग्रेस के बंधुआ मजदूर बने रहे, लेकिन जब मंडल से जाति की बहस छिड़ी, तो नारे बदले ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’ यह नारे हिंदू समाज में सामाजिक न्याय के नाम पर लगाए जा रहे थे, पर अपनी समकक्ष जातियों पर यह असर डाले बिना नहीं रह सकता था. मंडल आयोग द्वारा पिछड़े मुसलमानों को ओबीसी में शामिल करने से मुसलमानों के भीतर चल रहे जातिगत अंतर्विरोधों को एक नया आयाम मिला. इससे ‘जाति से जमात की ओर जाने’ की बात समझ में आने लगी. इसी दौरान शब्बीर अंसारी ने महाराष्ट्र राज्य मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन (बाद में आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन) नामक संगठन बनाया. महाराष्ट्र के बीड जिले के रहने वाले इकबाल पेंटर अपने संगठन ‘मुस्लिम भटके विमुक्त जाति जमात’ के जरिये इस आंदोलन को मजबूती दे रहे थे. पर मोमिन कान्फ्रेंस के बाद, बिहार में फिर से सामाजिक न्याय की यह लडाई ज्यादा मुखर दिखी. डॉ. एजाज अली ने 1994 में बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा की स्थापना की. यहीं से ‘दलित मुसलमान’ शब्द चर्चा में आया और अनुच्छेद 341 पर चर्चा शुरू हुई. डॉ. एजाज अली ने दलित मुसलमानों के आरक्षण पर कई आंदोलन किए. बाद में डॉ. एजाज अली ने अपने संगठन का नाम बैकवॉर्ड मुस्लिम मोर्चा की जगह यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा रख लिया. 1998 में डॉ. एजाज अली से मतभेदों की वजह से अली अनवर ने अपना एक अलग संगठन बनाया, जिसका नाम उन्होंने ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ रखा. पहली नजर में यह नाम बैकवॉर्ड मुस्लिम मोर्चा का उर्दू अनुवाद ही नजर आता है. फिर भी बैकवॉर्ड की जगह पसमांदा शब्द का प्रयोग नया था. यही कारण है कि यह शब्द ‘पसमांदा’ बहुत चर्चित हुआ. राजनीति में जिसका शब्द चलता है, जिसके नारे चलते हैं, उसी विचारधारा की राजनीति भी चलती है. आजादी के बाद यह पहली बार है कि किसी प्रधानमंत्री ने मुसलमानों के भीतर सामाजिक न्याय की बात की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसमांदा शब्द का प्रयोग करने से भारतीय राजनीति में एक नई बहस छिड़ गई है. प्रधानमंत्री मोदी जी के एक बयान ने मुस्लिम राजनीति, जो दरअसल अशराफिया राजनीति थी, की जमीन हिला दी है. बाबरी मस्जिद, बुर्का, उर्दू, तलाक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, पर्सनल लॉ आदि की राजनीति करने वाली मुस्लिम अशराफ सियासत अब पसमांदा समाज की रोजी, रोटी, स्वास्थ, शिक्षा, मकान, प्रतिनिधित्व, दलित मुसलमान के आरक्षण आदि मुद्दों पर घिरती नजर आ रही है. अब सवाल सिर्फ सरकार से नहीं हो रहा है, 75 साल से धार्मिक और राजनीतिक रूप से पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली अशराफ लीडरशिप भी सवालों के घेरे में है. मुस्लिम समाज की जाति व्यवस्था कितनी कठोर है? यह बात कहने से पहले, कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था हिंदू समाज की तरह नहीं है. इस बात को समझ लें कि जाति व्यवस्था बुनियादी तौर पर ‘सामाजिक बहिष्कार’ के लिए अस्तित्व में आयी व्यवस्था है अर्थात जाति व्यवस्था में हर जाति अपना एक निश्चित स्थान रखती है और उसी के अनुसार उनका पद भी निर्धारित होता है. जहां ऊपर की ओर सारे अधिकार और संसाधन मौजूद रहते हैं और नीचे की ओर मात्र कर्तव्य होता है. सामाजिक बहिष्कार एक ऐसी सामाजिक स्थिति है, जिसमें व्यक्ति, समूह, जाति, समुदाय को एक नियोजित प्रक्रिया के माध्यम से समाज की मुख्यधारा से बाहर रखा जाता है. इसलिए जिनको मुस्लिम समाज के जाति व्यवस्था को समझना है, उनको यह देखना होगा कि वह कौन-कौन सी जातियां हैं, जिनको सारे अधिकार और संसाधन उपलब्ध हैं और किन जातियों को प्रभावशाली तरीके से सत्ता, ज्ञान और दौलत के दायरे से बाहर रखा गया है. पसमांदा डेमोक्रेसी में मेरे द्वारा लिए गए साक्षात्कार से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मुस्लिम समाज में रोटी-बेटी के रिश्तों मे जातिगत भेदभाव मौजूद है. कई जाति के अपने अलग कब्रिस्तान हैं, जहाँ दलित मुसलमनों को दफन करने से भी कई बार रोका गया है. दलित मुसलमान तबकों के साथ कुछ इलाकों में छुआछूत प्रचलन में था. अंसार अहमद (हलालखोर) बताते हैं कि मस्जिद में उन्हें वजू (हाथ-मुंह धोने) की इजाजत नहीं थी. वह अपने घर से वजू करके जाते थे या अपना बधना मस्जिद में साथ ले जाते थे. अंसार साहब बताते हैं कि जब उनके घर की औरतें जमींदारों के घर उनका पैखाना उठाने जाती थीं, तो इस डर से कि कहीं गंदा काम समझकर यह औरतें उनकी खड्डी में आना ना छोड़ दें. जमींदार की औरतें कहती थी कि ‘ए बहनी कल कयामत के दिन जौंन हथवा से त पैखाना उठावती, ऊ हथवा क अल्लाह ताला सोने का कर दीयन’. कुछ मस्जिदों में नमाज के दौरान कमजोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए कहने, सरायमीर के फत्तनपूर गाँव में धोबी समाज के लोगों को अशराफ द्वारा बनाई गई मस्जिद में नमाज पढ़ने से रोका गया था. इस रोक-टोक से तंग आकर धोबियों ने अपनी अलग मस्जिद बना ली, जिसे धोबियाने की मस्जिद कहा जाता है. इस गाँव के वकार अहमद हवारी (धोबी) बताते हैं कि मैं मंदिरों में कई बार गया हूँ, पर अशराफ की इस मस्जिद जिसे ‘मियांने की मस्जिद’ कहा जाता है, यहां कभी नहीं गया हूं. हम मानते हैं कि दक्षिण भारत से उत्तर भारत में सामाजिक संरचना एक जैसी नहीं है. फिर भी सामाजिक बहिष्कार के मामले में हर जगह दलित मुसलमान ही हाशिए पर क्यों नजर आते हैं? कुछ प्रसिद्ध पसमांदा जातियों के उदाहरण लालबेगी, हलालखोर, मोंची, पासी, भंट, भटियारा, पमरिया, नट, बक्खो, डफली, नालबंद, धोबी, साई, रंगरेज, चिक, मिर्शीकर और दारजी हैं. सीधे शब्दों में कहें, तो पसमांदा मुसलमान पिछड़े (शूद्र) और दलित (अति-शूद्र) हैं, जिन्होंने खुद को जातिगत अत्याचारों से मुक्त करने के लिए सदियों पहले इस्लाम अपनाया था, लेकिन धर्म परिवर्तन ने उन्हें जातिगत भेदभाव और भौतिक अभाव से मुक्त नहीं किया. कई बार पसमांदा जातियों ने अपना अशराफीकरण करने की कोशिश की. उन्होंने अपनी जाति का नाम बदलकर अपना संबंध अरब समाज से जोड़ने की कोशिश इस आशा से की कि उनकी जाति को सम्मान मिल सके. जैसे बुनकरों ने अंसारी, हज्जामों ने सलमानी, धुनियों ने मंसूरी, कसाइयों ने कुरैशी, धोबी ने हवारी, मनिहारों ने सिद्दीकी, मेहतर ने हलालखोर, भठियारा ने फारुकी, गोरकन ने शाह, पमारिया ने अब्बासी आदि पर नाम बदलने से इनकी सामाजिक स्थिति नहीं बदली. पसमांदा समाज की माँगें दशकों से पसमांदा संगठन और बुद्धिजीवी, पसमांदा समाज की प्रगति के लिए उनको देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कुछ मांगे करते आए हैं. उन्हीं मांगों को यहां संक्षेप में प्रस्तुत कर रहा हूँ. पसमांदा समाज की सामाजिक आर्थिक दशा में सुधार लाने के लिए तीन पहलुओं पर समानांतर रूप से हमें कार्य करना होगा, आधुनिक शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक जागरूकता. और इसके लिए जरूरी है कि पसमांदा अशराफ राजनीति को खारिज करें और अपने मुद्दों की नुमाइंदगी खुद करें, क्यूँकि मुस्लिम आबादी का 85 प्रतिशत पसमांदा समाज भारतीय राजनीति, मुस्लिम संगठनों और शिक्षा संस्थानों इत्यादि में अपनी हिस्सेदारी से वंचित है. 1- सबसे पहली मांग है कि जब जातिगत भेदभाव एक सामाजिक अवगुण है, तो धर्म के आधार पर मुस्लिम और ईसाई दलितों को दलित आरक्षण न देना असंवैधानिक है. अतः संविधान की धारा 341 पर 1950 के राष्ट्रपति आदेश के पैरा 3 को रद्द करना चाहिए. 2- दूसरी मांग, पसमांदा की आबादी के अनुसार उसकी राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायती राज और नगर निगम के स्तर पर भी सीट आरक्षित किए जाये. 3- तीसरी मांग, पिछड़े (ओबीसी) आरक्षण को कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूले के अनुसार पिछड़े और अति पिछड़े में विभक्त कर सभी पसमांदा जातियों को अति पिछड़े कोटे में शामिल किया जाये. जो भी पसमांदा जातियां ओबीसी आरक्षण में शामिल होने से छूट गई थीं, उनको शामिल किया जाये तथा अनुसूचित जनजाति पसमांदा को एसटी आरक्षण में शामिल किया जाये. उदाहरण के लिए हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में मियो मुसलमानों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाना चाहिए. इन मांगों को पूरा करने के लिए जातिगत जनगणना से जुड़े आंकड़ों को प्रकाशित करना आवश्यक है. 4- चौथी मांग, केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन पिछड़ा आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पसमांदा समाज का एक सदस्य स्थायी रूप से नामित किया जाए. 5- पांचवीं मांग, केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन सभी अल्पसंख्यक प्रतिष्ठानों एवं संस्थानों में पसमांदा की भागीदारी उनकी संख्या के अनुसार सुनिश्चित की जाये. 6- छठी मांग, अल्पसंख्यकों के विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आवंटित बजट का एक भाग मुख्यतः पसमांदा समाज के उत्थान के लिए खर्च किया जाये. इसके अतिरिक्त पसमांदा धर्म के आधार पर पूरी मुस्लिम आबादी को मिलने वाले वाले आरक्षण का भी विरोध करता है, क्यूँकि इसका लाभ ज्यादातर अशराफ तबके के हिस्से में चला जाता है और ये तबका जो पहले से ही उत्कृष्ट जिंदगी जी रहा है, बड़े आराम से पसमांदा के हिस्से की भी रोजी-रोटी हजम कर जाता है. सभी राजनीतिक पार्टियां फिर चाहे, वो राष्ट्रीय दल हांे या क्षेत्रीय, न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए पसमांदा को उस क्षेत्र की आबादी के अनुसार चुनाव में टिकट देना सुनिश्चित करें और हिंदू-मुस्लिम की अलगाववादी राजनीति पर लगाम भी लगाएं, जिससे सिर्फ और सिर्फ सवर्ण अशराफ के निजी स्वार्थ पूरे होते हैं. मुसलमानों एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के नाम पर चलाई जाने वाली सभी संस्थाओं जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक्फ बोर्ड, बड़े मदरसे, इमारत-ए-शरिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, इंट्रीग्रल यूनिवर्सिटी आदि में पसमांदा का कोटा निर्धारित कर आरक्षण की व्यवस्था की जाये. सरकारी आर्थिक नीतियों में पसमांदा कारीगरों, शिल्पकारों, लघु एवं कुटीर उद्यमियों, किसान, मजदूरों को विशेष रूप से स्थान देना चाहिए, क्यूँकि तमाम तरह के पेशे से जुड़े पसमांदा वर्ग को एक समग्र व्यापारिक इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है. मुस्लिम समाज में अशराफ राजनीति के नकारात्मक प्रभाव से लड़ने की एकमात्र क्षमता पसमांदा राजनीति के पास है. पसमांदा शब्द को राजनीति से दूर रखना हमारी तथाकथित सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाली पार्टियों की सोची समझी चाल थी, क्योंकि ये जानते हैं कि शब्द ही विचारधारा में परिवर्तन लाते हैं और ये भी तय करते हैं कि सत्ता की कमान किसके हाथों में होगी. पसमांदा आंदोलन के लिए एक स्वर्णिम काल सोशल मीडिया के साधन के रूप में आज पसमांदा समाज के पास मौजूद हैं, जिससे वह अपनी बात दूर तक पहुंचा सकते हैं. साथ ही इस देश का सबसे ताकतवर पद यानी प्रधानमंत्री खुद सामाजिक न्याय के प्रश्न को उठा रहे हैं, अगर अब भी हम चुप रहे, तो इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा.