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‘अशराफ बनाम पसमांदा’- जातिगत भेदभाव से जूझ रहे मुस्लिमों में कैसे जारी है सामाजिक न्याय का संघर्ष

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मुख्यधारा में अल्पसंख्यक विमर्श व्यावहारिक रूप से मुस्लिम विमर्श ही कहलाता है और देखा जाए तो यह पूरा विमर्श मुस्लिम समाज को समरूप मानकर चलता है. क्या यह सही है? अगर हम तथ्यों को देखें तो पता चलता है कि मुस्लिम समाज कभी भी एक इकाई नहीं रहा है. यहां साफ तौर से बाहर से आए हुए विदेशी और देशी का विभेद है. इस्लामी फिक्ह (विधि) और इस्लामी इतिहास की किताबों में भी अशराफ, अजलाफ और अरज़ाल का वर्गीकरण मिलता है. अशराफ जो शरीफ (उच्च) शब्द का बहुवचन है जिसका एक बहुवचन शोरफा भी होता है जिसमें बाहर से आए हुए अरबी, ईरानी, तुर्की, सैयद, शेख, मुगल, मिर्जा, पठान आदि जातियां आती है जो शासक रहीं हैं. अरज़ाल रजील (नीच) का बहुवचन है जिसमें अधिकतर साफ सफाई का काम करने वाली जातियां हैं और जो हिंदू दलित जातियों के समकक्ष हैं. अजलाफ और अरज़ाल को सामूहिक रूप से पसमांदा (जो पीछे रह गए हैं) कहा जाता है जिसमें मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी (बन-गुजर, तड़वी, भील, सेपिया, बकरवाल), दलित (मेहतर, भक्को, नट, धोबी, हलालखोर, गोरकन) और पिछड़ी जातियां (धुनिया, डफाली, तेली, बुनकर, कोरी) आते हैं. दुनियाभर के मुस्लिम समाज में नस्लवाद सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज में नस्लवाद/जातिवाद, ऊंच-नीच किसी ना किसी रूप में प्रचलित है. तुर्की में काली पगड़ी केवल सैयद ही बांध सकता है, भारत में भी ऐसा देखने को मिलता है. यमन के अखदाम, जो सफाई कर्मी होते हैं उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार आम बात है. मुसलमानों के तीन बड़े देश तुर्की, सऊदी अरब और ईरान में सत्ता पर वर्चस्व क्रमशः तुर्क जनजाति, अरबी बद्दू और सैयद जाति का है. अफगानिस्तान की मौजूदा सत्ताधारी तालिबान पख्तून पठान वर्चस्व वाली जमात है. इस्लाम के आधिकारिक स्रोतों हदीस और इस्लामी फिक्ह (विधि) में एक दो अपवादों को छोड़कर खलीफा के लिए कुरैश जनजाति (सैयद, शेख) का होना प्रमुख शर्त रहा है. शादी विवाह में नस्ल, जाति, पेशा और क्षेत्र (अरबी/अजमी) आधारित भेदभाव स्पष्ट रूप से वर्णित है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा प्रकाशित ‘मजमूये कवानीने इस्लामी’ जिसे बोर्ड ने मुस्लिम समाज के पर्सनल लॉ के मामले में एक वैधानिक दस्तावेज की मान्यता दे रखी है, उक्त बातों का समर्थन करता है. सामाजिक न्याय का संघर्ष प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग), मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर समिति तक ने मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है. सामाजिक न्याय की परिकल्पना में देशज पसमांदा अन्य पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में सम्मिलित हैं. स्थिति इतनी स्पष्ट होने के बाद भी अशराफ वर्ग द्वारा इसका इनकार किया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि मुस्लिम समाज में जातिवाद/नस्लवाद नहीं हैं और अगर किसी ने इसे माना भी तो यह कहा कि अभी इस बात को करने का सही समय नहीं है, अभी पूरी कौम खतरे में है, इस्लाम खतरे में हैं. इस प्रकार पूरे मुस्लिम समाज को समरूप दिखा कर अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ की झोली में चली जाती है, जबकि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90% है. लेकिन सत्ता में चाहे वो न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका हो या मुस्लिम कौम के नाम पर चलने वाली इदारे/ संस्थान या गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) हो, जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमाते इस्लामी, जमीयतुल उलेमा, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मशावरत, वक़्फ़ बोर्ड, बड़े स्तर के मदरसे, इमारते शरिया आदि जो पूरे मुस्लिम समाज के नुमाइंदगी का दावा करती हैं, उसमें भारतीय मूल के आदिवासी, दलित और पिछड़े मुसलमानों की भागेदारी लगभग शून्य है. यह बात अब साफ हो चुकी है कि अशराफ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की भीड़ दिखा कर सिर्फ अपना हित साधता रहा है. मज़हबी या धार्मिक पहचान की सांप्रदायिक राजनीति शासक वर्गीय अशराफ की राजनीति है जिससे वो अपना हित सुरक्षित रखता है. अशराफ हमेशा मुस्लिम एकता का राग अलापता है. वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी तो अशराफ ही उसका लीडर बनेगा. इसलिए अधिकांश अशराफ द्वारा पसमांदा कार्यकर्ताओं पर कौम की एकता तोड़ने का आरोप लगाया जाता रहा हैं जबकि यह तोड़ने की नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का संघर्ष है जो देखा जाए तो पूरे समाज को जोड़ने का ही साधन है. समांदा मुस्लिमों की अनदेखी एक अजीब बात है कि यही अशराफ वर्ग हिंदू समाज में सामाजिक न्याय को लेकर बहुत सक्रिय रहता है लेकिन मुस्लिम समाज के सामाजिक न्याय पर या तो खामोश रहता है या इधर उधर की बात करके सिरे से खारिज कर देता है. बड़ी हैरानी होती है कि अन्य भारतीय सेक्युलर लिबरल बुद्धिजीवी लोग भी इसे स्वीकार किए हुए हैं. लगभग 13 से 15 करोड़ की जनसंख्या वाले देशज पसमांदा समाज की ये अनदेखी किसी भी रूप में देश और समाज के हित में नहीं है. बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ये सोचने और समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि मुस्लिम समाज भी जातिगत विभेद से ग्रसित है, इसलिए सिर्फ मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात नहीं बल्कि उसके अंदर मौजूद दबा कुचला आदिवासी, पिछड़ा, दलित पसमांदा के भागीदारी की बात मुखर होकर करना न्यायसंगत होगा. केंद्र और राज्य सरकारों को इस ओर ध्यान देना चाहिए और मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज मानकर अब तक बनती आ रही नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए.